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शनिवार, 23 अप्रैल 2011

इन टोटकों से नहीं होगी पैसों की कमी

सभी चाहते हैं कि उन पर लक्ष्मी की कृपा हो। उनके पास जो लक्ष्मी आए वो उन्हें कभी छोड़कर ना जाए और घर हमेशा धनधान्य से पूर्णहो, यदि आप भी यही चाहते हैं तो नीचे लिखे इन लक्ष्मी प्राप्ति के इन अचूक टोटकों को अपनाकर आप भी मां लक्ष्मी की कृपा प्राप्त कर सकते हैं।
टोटके
- हर पूर्णिमा को सुबह पीपल के वृक्ष पर जल चढ़ाएं।
- तुलसी के पौधे  पर गुरुवार को पानी में थोड़ा दूध डालकर चढ़ाएं।
- यदि आपको बरगद के पेड़ के नीचे कोई छोटा पौधा उगा हुआ नजर आ जाए तो उसे उखाड़कर अपने घर में लगा दें।
- गूलर की जड़ को कपड़े में बांधकर उसे ताबीजमें डालकर बाजु पर बांधे।
- पीपल के वृक्ष की छाया में खड़े होकर लोहे के पात्र में पानी लेकर उसमें दूध मिलाकर उसे पीपल की जड़ में डालने से घर में सुख-समृद्धि बनी रहती है और घर में लक्ष्मी का स्थाई निवास होता है।

टोटका: सपने में आकर मनोकामना पूरी करते हैं हनुमान

तंत्र ज्योतिष के अंतर्गत कई चमत्कारी टोटके हैं, जिनके माध्यम से आप सपनें में भगवान की कृपा प्राप्त कर सकते हैं। ऐसा ही एक टोटका यह भी है जिसमें हनुमानजी सपने मेंआकर साधक को मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। यह अनुष्ठान 81 दिन है। कोई अच्छामुहूर्त देखकर इसे प्रारंभ करना चाहिए।
विधि
कोई शुभ दिन व मुहूर्त देखकर सुबह उठकर नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ वस्त्र धारण करें। अब एक लोटा जल लेकर हनुमानजी के मंदिर में जाएं और उस जल से हनुमानजी की मूर्ति को स्नान कराएं पहले दिन एक दाना उड़द हनुमान के सिर पर रखकर ग्यारह परिक्रमा करें और मन ही मन अपनी मनोकामना हनुमानजी के सामने कहें और वह उड़द का दाना लेकर घर लौट आएं तथा उसे अलग रख दें।
दूसरे दिन से एक-एक उड़द का दाना रोज बढ़ाते रहें व यही प्रक्रिया करते रहें। 41 दिन 41 दाने रखकर बाद में 42 वें दिन से एक-एक दाना कम करते रहें। जैसे 42 दिन 40, 43 वें दिन 39और 81 वें दिन 1 दाना। 81 दिन का यह अनुष्ठान पूर्ण होने पर उसी दिन रात में श्रीहनुमानजी स्वप्न में दर्शन देकर साधक को मनोकामना पूर्ति का आशीर्वाद देते हैं। इस पूरी विधि के दौरान जितने भी उड़द के दाने आपने हनुमानजी को चढ़ाएं हो उन्हें नदी में प्रवाहित कर दें।

दनादन पूरे होंगे काम करें इस गणेश मंत्र के साथ दिन की शुरुआत

जब शुरुआत बेहतरीन हो तो उससे मिलने वाले नतीजे भी शानदार होते हैं। सफलता का सिलसिला कायम रहता है। ऐसी स्थिति तन, मन और विचारों में उमंग और उत्साह बनाए रख भय, चिंता, तनाव व थकान को दूर रखती है।
हिन्दू धर्म में भगवान गणेश की उपासना दिल और दिमाग को इसी तरह चुस्त-दुरुस्त रखने वाली ही होती है। क्योंकि गणपति विघ्रनाशक और संकटहर्ता माने गए हैं। उनकी ऐसी ही शक्तियों के कारण से ही किसी काम की शुरुआत को प्रतीक रूप में 'श्री गणेश करना' ही बोला जाता है।
अगर आप भी नौकरी, व्यवसाय से जुड़े हों, गृहस्थ या विद्यार्थी हैं तो दिन की शुरुआत खासतौर पर बुधवार के दिन भगवान श्री गणेश कीपूजा से करें और यहां बताए जा रहे मंत्र विशेष बोलें -
- स्नान कर थोड़ा समय निकाल देवालय में भगवान श्री गणेश की पूजा करें।
- प्रतिमा की पूजा करने पर पंचामृत या पवित्र जल से स्नान कराएं (यह संभव न हो तो गणपति की तस्वीर की पूजा ही करें)
- स्नान के बाद गंध, फूल, अक्षत, दूर्वा, सिंदूर, कलेवा चढ़ाकर मोदक या लड्डू का भोग लगाएं।
- पूजा के बाद धूप, दीप लगाकर श्री गणेश  के इन विघ्रनाशक मंत्रों को बोलें और कार्य में बाधाओं से रक्षा की कामना करें -
- ऊँ श्री विघ्रेश्वराय नम: या ऊँ गं गणपतये नम:।
यह गणेश मंत्र भी बोलें -
वक्रतुंड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभं।
निर्विघ्रं कुरू मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा।
- श्री गणेश की आरती कर क्षमाप्रार्थना कर प्रसाद ग्रहण कर अपने काम पर जाएं।

जब लगी हो बुरी नजर, यह उपाय करें

हम अक्सर यह सुनते हैं कि बच्चे को बुरी नजर लग गई या नजर लगने से दुकान बंद हो गई। नजर किसी भी सुंदर या अच्छी चीज को लग सकती है जैसे- सुंदर बच्चे को, दुकान को, घर को आदि। ऐसे में बुरी नजर से मुक्ति पाने के लिए टोने- टोटके ही अपनाएं जाते हैं। अगर आपके घर के किसी सदस्य या आप पर बुरी नजर का प्रभाव है तो नीचे लिखे टोटके अपनाकर बुरी नजर से मुक्ति पा सकते हैं।
उपाय
- नारियल को काले कपड़े में बांधकर सिलकर घर से बाहर लटका दें तो घर पर बुरी नजर का प्रभाव नहीं पड़ता।
- थोड़ी सी साबुत फिटकरी लेकर नजर लगी दुकान पर से 31 बार उसारें। फिर किसी चौराहे पर जाकर उसे उत्तर दिशा में फेंककर पीछे देखें बिना लौट जाएं। दुकान पर लगी नजर दूर हो जाएगी।
- थोड़ी सी राई, नमक, आटा और सात सूखी लाल मिर्च लेकर नजर दोष से पीडि़त व्यक्ति के सिर पर से सात-बार घुमाकर आग में डाल दें। नजरदोष होने से मिर्च जलने पर गन्ध नहीं आएगी।
- घर के निकट वृक्ष की जड़ में शाम को थोड़ा सा कच्चा दूध डाल दें। फिर गुलाब की अगरबत्ती जलाएं। नजरदोष दूर हो जाएगा।
- मंगलवार को हनुमान मन्दिर जाकर हनुमान जी के कन्धे का सिंदूर लाकर लगाने से बुरी नजर का प्रभाव दूर हो जाता है।
- पुराने कपड़े की सात चिंदियां लेकर सिर पर से 21 बार उसारकर आग में जलाने से बच्चे को लगी नजर समाप्त हो जाती है।
- पीली कौड़ी में छेद करके बच्चे को पहनाने से उसे नजर नहीं लगती।
- नए मकान की चौखट पर काले धागे से पीली कौड़ी बांधने से उस पर बुरी नजर नहीं लगती है।

टोटके करते समय इन बातों का ध्यान रखें

तंत्र शास्त्र में कई प्रकार के टोटके किए जाते हैं। सभी का उद्देश्य अलग-अलग होता है।उद्देश्य के अनुसार ही उन टोटकों को करने केलिए शुभ तिथि व महीना निश्चित है। यदि इस दौरान वह टोटके किए जाए तो कई गुना अधिक फल देते हैं। नीचे टोटकों से संबंधित कुछ साधारण दिशा-निर्देश दिए गए हैं। टोटके करते समय इनका ध्यान रखें-
दिशा-निर्देश
- सम्मोहन सिद्धि, देव कृपा प्राप्ति अथवा अन्य शुभ एवं सात्विक कार्यों की सिद्धि के लिए पूर्व दिशा की ओर मुख करके टोटके किए जाते हैं।
- मान-सम्मान, प्रतिष्ठा व लक्ष्मी प्राप्तिके लिए किए जाने वाले टोटकों के लिए पश्चिम दिशा की ओर मुख करके बैठना शुभ होता है।
- उत्तर दिशा की ओर मुख करके उन टोटकों को किया जाता है जिनका उद्देश्य रोगों की चिकित्सा, मानसिक शांति एवं आरोग्य प्राप्ति होता है।
- रोग मुक्ति के लिए किए जाने वाले टोटकों केलिए मंगलवार एवं श्रावण मास उत्तम समय है।
- मां सरस्वती की प्रसन्नता व शिक्षा में सफलता के लिए बुधवार एवं गुरुवार तथा माघ, फाल्गुन और चैत्र मास में टोटका करना चाहिए।
- संतान और वैभव पाने के लिए गुरुवार तथा आश्विन, कार्तिक एवं मार्गशीर्ष मास में टोटकों का प्रयोग करना चाहिए।

ये है शराब छुड़वाने का अचूक टोटका

शराब एक सामाजिक बुराई है। शराब न सिर्फ एक व्यक्ति को बल्कि पूरे परिवार को नष्ट कर देती है। शराब की लत जिसे लग जाती है उसका जीवन खराब हो जाता है। तंत्र शास्त्र के अतंर्गत ऐसे कई टोटके हैं जिनसे शराब की लत को छुड़वाया जा सकता है। उन्हीं में से एक यह भी है-
टोटका
शुक्ल पक्ष के पहले शनिवार को सुबह सवा मीटरकाला कपड़ा तथा सवा मीटर नीला कपड़ा लेकर इनदोनों को एक-दूसरे के ऊपर रख दें। इस पर 800 ग्राम कच्चे कोयले, 800 ग्राम काली साबूत उड़द, 800 ग्राम जौ एवं काले तिल, 8 बड़ी कीलें तथा 8 सिक्के रखकर एक पोटली बांध लें।फिर जिस व्यक्ति की शराब छुड़वाना हो उसकी लंबाई से आठ गुना अधिक काला धागा लेकर एक जटा वाले नारियल पर लपेट दें।
इस नारियल को काजल का तिलक लगाकर धूप-दीप अर्पित करके शराब पीने की आदत छुड़ाने का निवेदन करें। फिर यह सारी सामग्री किसी नदी में प्रवाहित कर दें। जब सामग्री दूर चली जाए तो घर वापस आ जाएं। इस दौरान पीछे मुड़कर न देखें। घर में प्रवेश करने से पहलेहाथ-पैर धोएं। शाम को किसी पीपल के वृक्ष के नीचे जाकर तिल के तेल का दीपक लगाएं। यही प्रक्रिया आने वाले बुधवार व शनिवार को फिर दोहराएं। इस टोटके के बारे में किसी को कुछ न बताएं।
कुछ ही समय में आप देखेंगे कि जो व्यक्ति शराब का आदि था वह शराब छोड़ देगा।

लड़के के शीघ्र विवाह के लिए अचूक टोटका

हर माता-पिता की इच्छा होता है कि उनके बेटे का विवाह धूम-धाम से हो। लेकिन कभी-कभी कुछ कारणों के चलते उचित समय पर उसका विवाह नहींहो पाता। यदि आपके साथ भी यही समस्या है तो नीचे लिखे टोटके से इस समस्या का निदान संभवहै
टोटका
कुम्हार अपने चाक को जिस डंडे से घुमाता है, उसे किसी तरह किसी को बिना बताए प्राप्त कर लें। इसके बाद घर के किसी कोने को रंग-रोगन कर साफ कर लें। इस स्थान पर उस डंडे को लंहगा-चुनरी व सुहाग का अन्य सामग्री से सजाकर दुल्हन का स्वरूप देकर एक कोने में खड़ करके गुड़ और चावलों से इसकी पूजा करें।इससे लड़के का विवाह शीघ्र ही हो जाता है। यदि चालीस दिनों में इच्छा पूरी न हो तो फिर यही प्रक्रिया दोहराएं(डंडा प्राप्त करने से लेकर पूजा तक)। यह प्रक्रिया सात बार कर सकते हैं।

बिगड़े काम बनाता है यह गणेश मंत्र

हिंदू धर्म में अनेक देवी-देवताओं की पूजा करने का विधान है लेकिन जब भी कोई शुभ कार्य किया जाता है तो सबसे पहले भगवान गणेश की पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि इनकी पूजा करने से सभी बाधाएं समाप्त हो जाती है और शुभ कार्य ठीक से हो जाता है। यदि आपका भीकोई कार्य ठीक से नहीं हो रहा है तो नीचे लिखे मंत्र का जप करें। आपके सभी बिगड़े कामबन जाएंगे।
मंत्र
ऊँ गणेश एकदंत च हेरम्वं विघ्ननामकम्।।
लम्बोदरं शूपकर्णं गजवक्त्रं गुहाग्रजम्।।
जप विधि
- सुबह जल्दी उठकर सर्वप्रथम स्नान आदि नित्य कर्म से निवृत्त होकर साफ  वस्त्र पहनें।
- इसके बाद अपने माता-पिता, गुरु, इष्ट व कुल देवता को नमन कर कुश का आसन ग्रहण करें।
- भगवान श्रीगणेश की प्रतिमा का पूजन कर इस मंत्र का जप करेंगे तो विशेष फल मिलता है।
- जप के लिए हरे पन्नेकी माला का प्रयोग करें।
मंत्रों में अनेक समस्याओं का समाधान निहितहै। यह मंत्र जल्दी ही शुभ परिणाम देते हैं।

दोस्त सच्चा है कि बनावटी, ऐसे पहचाने ! !

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हमारे मन का स्वभाव ऐसा है कि वह मीठा बोलने वालों को ही ज्यादा पंसंद करता है। अच्छे-बुरे से मन को कुछ लेना-देना नहीं। असली दोस्त की पहचान में भी इसी कारण से इंसान से भूल हो जाती है। व्यक्ति मीठा बोलने वाले मनोरंजक व्यक्ति को ही अपना पक्का दोस्त समझ बैठते हैं, जबकि असलियत में ऐसा कुछ होतानहीं। इस विषय में कबीरदास जी ने बहुत सही बात कही है- निंदक नियरे राखिये, आंगन कुटि छवाय।
 बिन  साबुन  बिना निर्मल करे सुभाय।।
इसीलिये कहते हैं सच्चा दोस्त उस निदंक की तरह होता है जो अच्छाईयों पर आपकी तारीफ के साथ साथ आपकी बुराईयों को सामने लाकर उनको दूर करने में आपकी मदद करता है।
ऐसा ही एक किस्सा है कृष्ण और अर्जुन  की दोस्ती का द्वारिका में एक ब्राह्मण के घर जब भी कोई बालक जन्म लेता तो वह तुरंत मर जाता एक बार वह ब्राह्मण अपनी ये व्यथा लेकरकृष्ण के पास पहुंचा परन्तु कृष्ण ने उसे नियती का लिखा कहकर टाल दिया। उस समय वहां अर्जुन भी मौजूद थे।अर्जुन को अपनी शक्तियों पर बड़ा गर्व था। अपने मित्र की मदद करने के लिए अर्जुन ने ब्राह्मण को कहा कि मैं तुम्हारे पुत्रों की रक्षा करूंगा। तुम इस बार अपनी पत्नी के प्रसव के समय मुझे बुला लेना ब्राह्मण ने ऐसा ही किया लेकिन यमदूत आए और ब्राह्मण के बच्चे को लेकर चले गए।
अर्जुन ने प्रण किया था कि अगर वह उसके बालकों को नहीं बचा पाएगा तो आत्मदाह कर लेगा।
जब अर्जुन आत्म दाह करने के लिए तैयार हुए तभी श्री कृष्ण ने अर्जुन को रोकते हुए कहा कि यह सब तो उनकी माया थी उन्हें ये बताने केलिए कि कभी भी आदमी को अपनी ताकत पर गर्व नहीं करना चाहिए क्यों कि नियती से बड़ी कोईताकत नहीं होती।

क्यों मिला दुर्योधन को भीम के हाथों मरने का शाप?

महाभारत में अब तक आपने पढ़ा... कौरवों द्वारा पांडवों को मारने के लिए योजना बनाना और वेदव्यास का उनको रोकना अब आगे...
व्यासजी की बात सुनकर धृतराष्ट्र ने कहा जो कुछ आप कह रहे है, वही तो मैं भी कहता हूं। यह बात सभी जानते हैं। आप कौरवों की उन्नति और कल्याण के लिए जो सम्मति दे रहे हैं वही विदुर, भीष्म, और द्रोणाचार्य भी देते हैं। यदि आप मेरे ऊपर अनुग्रह करते हैं। कुरुवंशियों पर दया करते हैं तो आप मेरे दुष्ट पुत्र दुर्योधन को ऐसी ही शिक्षा दें। व्यासजी ने कहा थोड़ी देर में ही महर्षि मैत्रेय यहां आ रहे है। वे पाण्डवों से मिलकर अब हम लोगों से मिलना चाहते हैं। वे ही तुम्हारे पुत्र को मेल-मिलाप का उपदेशदेंगे। इस बात की सूचना मैं दे देता हूं कि वे जो कुछ कहे, बिना सोच-विचार के करना चाहिए।
अगर उनकी आज्ञा का उल्लंघन होगा तो वे क्रोधमें आकर शाप भी दे सकते हैं। इतना कहकर वेदव्यास जी चले गए। महर्षि मैत्रेय के आते ही अपने पुत्रों के सहित उनकी सेवा व सत्कारकरने लगे। विश्राम के बाद धृतराष्ट्र ने बड़ी विनय के साथ पूछा-भगवन आपकी यहां तक की यात्रा कैसी रही? पांचों पांडव कुशलपूर्वक तो हैं ना। तब मैत्रेयजी ने कहा राजन में तो तीर्थयात्रा करते हुए वहां संयोगवश काम्यक वन में युधिष्ठिर से भेट हो गई। वे आजकल तपोवन में रहते हैं। उनके दर्शन के लिए वहांबहुत से ऋषि-मुनि आते हैं। मैंने वहीं यह सुना कि तुम्हारे पुत्रों ने पाण्डवों को जूए में धोखे से हराकर वन भेज दिया। वहां से मैं तुम्हारे पास आया हूं क्योंकि मैं तुम पर हमेशा से ही प्रेम रखता हूं।
उन्होंने युधिष्ठिर से इतना कहकर पीछे मुड़ते हुए दुर्योधन से कहा तुम जानते हो पाण्डव कितने वीर और शक्तिशाली है। तुम्हे उनकी शक्ति का अंदाजा नहीं है शायद इसलिए तुम ऐसी बात कर रहे हो। इसलिए तुम्हे उनके साथ मेल कर लेना चाहिए मेरी बात मान लो। गुस्से में ऐसा अनर्थ मत करो। महर्षि मैत्रेय की बात सुनकर दुर्योधन मुस्कुराकर पैर से जमीन कुरेदने लगे और अपनी जांघ पर हाथ से ताल ठोकने लगा। दुर्योधन की यह उद्दण्डता देखकर महर्षि को क्रोध आया। तब उन्होंने दुर्योधन को शाप दिया। तू मेरा तिरस्कार करता है और मेरी बात नहीं मानता। तेरे इस काम के कारण पाण्डवों से कौरवों का घोर युद्ध होगा और भीमसेन की गदा की चोट तेरी टांग तोड़ेगी।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

मां की सेवा का धर्म

धर्मग्रंथों में कहा गया है कि माता-पिता कीसेवा ही सर्वोपरि कर्तव्य और धर्म है। जो वृद्ध माता-पिता को असहाय छोड़कर तीर्थों की यात्रा से पुण्य अर्जित करना चाहते हैं, उसकी गति वैसी ही होती है, जैसे कोई प्यासा मृग रेतीले मैदान में बालू की लहरों को पानीसमझकर उनके पीछे दौड़ता फिरता है। अबू उस्मान हयरी खुरासान के परम तपस्वी थे। वह उपदेश में कहा करते थे, ‘अभिमान छोड़कर और विनयी बनकर ही भगवान की भक्ति की जा सकती है। हमेशा यह मानना चाहिए कि अल्लाह हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहा है। किसी का मन दुखाने की भी कभी कोशिश मत करो। तुमसे सभी को खुशी और संतोष प्राप्त हो, ऐसी कोशिश करो।’
संत उस्मान सदाचारी और ईमानदार आदमी को खुदा का सबसे प्यारा बंदा बताया करते थे। एकदिन संत जी के पास एक युवक पहुंचा। उसने बताया, ‘बाबा, मैं मक्का की यात्रा करके आया हूं। फिर भी मेरा हृदय अशांत है।’ संत उस्मानने पूछा, ‘कहीं तू अपनी वृद्धा व रोगी माता कोअसहाय अवस्था में छोड़कर तो नहीं गया था?’ उसव्यक्ति ने कहा, ‘वास्तव में मैं अपनी मां को बिना बताए मक्का की यात्रा पर चला गया था।’ संत जी ने कहा, ‘इसी पाप कर्म के कारण तुझे मक्का की यात्रा का फल नहीं मिल रहा। तू अभी घर जा और अपनी मां की सेवा कर, तभी तेरे मन को सच्ची शांति मिलेगी।’उस युवक ने वैसा ही किया और मां के आशीर्वाद से उसका जीवन धन्य हो गया। वह आगे चलकर संत उस्मान का शिष्य बन गया।

ज्ञान का दीपक

कहा गया है, बिनु सत्संग विवेक न होई। बड़े-बड़े महापुरुष ही नहीं, बल्कि साक्षात अवतार माने जानेवाले श्रीराम तथा श्रीकृष्ण भी सदैव शास्त्रज्ञ ऋषि-मुनियों का सत्संग कर अपनी जिज्ञासाओं के समाधान के लिए लालायित रहा करते थे।
एक दिन भगवान श्रीराम गुरुदेव वशिष्ठ जी का सत्संग कर रहे थे। वशिष्ठ जी अपने उपदेश मेंकह रहे थे, ‘जब सत्पुरुषों के सान्निध्य से मन वैराग्य में रमने लगता है, तब ऐसा विवेक उत्पन्न होता है कि भोगों की तृष्णा स्वयमेव नष्ट हो जाती है और सांसारिक विषय नीरस लगने लगते हैं। अज्ञान नष्ट हो जाने परविवेकी पुरुष भोग, वैभव, धन, संपत्ति आदि को जूठी पत्तल की तरह तुच्छ समझकर उनकी ओर देखता तक नहीं।’
वशिष्ठ जी ने आगे बताना शुरू किया, ‘विवेक वैराग्य संपन्न सत्पुरुषों के सत्संग से हीमनुष्य का सभी प्रकार का अज्ञान दूर होता है। ऐसे सत्पुरुषों के माध्यम से ही राष्ट्र और समाज का कल्याण संभव है। जिस प्रकार से दीपक अंधकार का नाश करता है, उसी तरह से विवेक और ज्ञान-संपन्न महापुरुष सभी तरह के अज्ञान रूपी अंधकार का नाश करने में समर्थ होते हैं।’
गुरु वशिष्ठ के अनुसार, विवेकी ज्ञानी महापुरुष वे हैं, जिनमें तमोगुण का सर्वथा अभाव है और जो रजोगुण से रहित हैं। ऐसे विवेकी महापुरुष वस्तुतः गगनमंडल में सूर्य के समान हैं। ऐसे लोगों के सत्संग से प्राप्त विवेक ही तमाम तरह के अंधकाररूपी बंधनों से मुक्ति दिलाकर वासनायुक्त अज्ञानी जीव का संसार सागर से उद्धार कर देता है।’

प्रेम ही आनंद है

श्री केशव रामचंद्र डोंगरे जी परम भागवत संत थे। उन्होंने जीवन भर देश के सभी राज्यों में जाकर सदाचार और धर्म का प्रचार किया। एक दिन एक गृहस्थ व्यक्ति डोंगरे जी महाराज के सत्संग के लिए पहुंचा। उसने अन्य श्रद्धालुओं की तरह ही प्रश्न किया, ‘महाराज,गृहस्थी में लगे रहने के कारण भक्ति और भजन-पूजन में मन नहीं रम पाता। गृहस्थी के प्रपंच में रहकर भी ईश्वर की कृपा प्राप्ति का सरल साधन बताएं।’
डोंगरे जी महाराज ने कहा, ‘बहुत सरल साधन है। हृदय से राग, द्वेष, घृणा, मेरा-तेरा की भावनानिकालकर सभी के प्रति प्रेम के भाव मन में पैदा करने का अभ्यास करो। जो सबसे प्रेम करने लगता है, उसके घर में स्वतः ईश्वर का वास हो जाता है।’
डोंगरे जी ने उपदेश में कहा, ‘बड़े पुण्यों से मानव जीवन प्राप्त होता है। मनुष्य को यहसमझ लेना चाहिए कि इंद्रियों को भोग का साधनबनाने वाला अपना जीवन निरर्थक कर रहा है। असंयमित भोग से इंद्रियां दूषित होती हैं, उनका क्षय होता है। जो इंद्रियों को सत्कर्मों की ओर उन्मुख करके भक्ति करता है, उसके तमाम विकार नष्ट हो जाते हैं। जिसका हृदय किसी दुखी व्यक्ति के दुख से पिघलता है,उसके हृदय में प्रभु प्रकट होते हैं। जब अंदर से आनंद की अनुभूति होने लगे, तो समझ लेना कि भगवान कृपा की वृष्टि कर रहे हैं।’
डोंगरे जी कहा करते थे, ‘यदि तुम्हारे पास किसी दुखी की सहायता के लिए धन नहीं है, शरीर में सामर्थ्य नहीं है, तो दुखी के प्रति सांत्वना के शब्द ही पुण्यकारक होते हैं। जिसके मन में प्रेम और करुणा है, वहां भगवान का वास होता है।’

स्वर्ग-नरक

विभिन्न मत-मजहबों में स्वर्ग-नरक की अपने-अपने ढंग से परिकल्पना की गई है। कुछ लोग पृथ्वी के अलावा दूसरे लोक में स्वर्ग-नरक का अस्तित्व मानते हैं, तो कुछ धर्मों में जन्नत-बहिश्त का वर्णन किया गया है। पौराणिक मान्यता के अनुसार, स्वर्ग को ब्रह्मलोक, दिव्यलोक आदि नामों से संबोधित किया गया है, जहां के राजा इंद्र हैं। मृत्युके बाद वहां यमराज कर्मों के अनुसार दंड का निर्णय करता है। सत्कर्म करने वालों को स्वर्ग और गलत कर्म करने वालों को नरक दिया जाता है।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ सत्यार्थ प्रकाश में वेदों का उद्धरण देते हुए लिखा है, ‘जिस पृथ्वी पर दूध, दही, घी जैसेदिव्य अमृतमय पदार्थ हैं, जहां के नागरिक सदाचारी, उच्च आदर्श वाले, सत्यनिष्ठ व धर्मानुसार जीवन बिताने वाले हैं, वह साक्षात स्वर्ग ही है। जिस घर में आदर्श पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र और शांति व आनंद का वातावरण है, वह घर स्वर्ग है। जहां दुर्व्यसनी, दुराचारी राग-द्वेष का वातावरणबनाते हैं, जिस घर में कलह व अशांति है, वह नरक है।’
अथर्ववेद में कहा गया है, स्वर्ग लोकमभि-नो नयसि सं जायया सह पुत्रैः स्याम। अर्थात, हम अपनी पत्नी व पुत्रों के साथ जहां शांतिपूर्वक रहें, वह स्वर्ग ही है। विद्वानपुरुषों का जहां सत्संग होता है, वहां स्वतः स्वर्ग का वातावरण बन जाता है। आचार्य चाणक्य कहते हैं, यस्य पुत्रो वशीभूतो भार्या छन्दानुगामिनी। विभवे यश्च संतुष्टस्तस्य स्वर्ग इहवै हि॥’ यानी, जिनकीसंतानें संयमी हैं, पत्नी आदर्शों का पालन करने वाली है, जरूरत लायक धन-धान्य है, ऐसे सद्गृहस्थ स्वर्ग में ही तो रहते हैं।

सत्य-सत्कर्म ही श्रेष्ठ

भगवान श्रीराम को ‘विग्रहवान धर्म’ तथा ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा गया है। पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों में उनके नीतिवचनों को प्रमुख जगह दी गई है। वनवास के समय तो वह सीता और लक्ष्मण के साथ विभिन्न विषयों में शास्त्र सम्मत नीति का बखान किया करते थे।
एक दिन सीता और लक्ष्मण की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए श्रीराम कहते हैं, ‘जीवन अमूल्य है, पर यह क्षण भंगुर भी है। इसलिए एक-एक पल का सत्कर्मों में सदुपयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति समय का मूल्य नहीं जानता तथा धर्म और वेद की मर्यादा का त्याग कर बैठता है, वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार, दोनों ही भ्रष्ट हो जाते हैं। निर्मयदिस्तु पुरुषः पापाचार समन्वितः।’
वह कहते हैं, ‘सभी संग्रहों का अंत क्षय है। बहुत ऊंचे चढ़ने का अंत नीचे गिरना है। संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण। मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और सुदूरवर्ती पथ पर भी साथ-साथ जाकर लौट आती है। हम सदैव ही उसके वश में रहते हैं। इसलिए हर क्षण सत्कर्म करने में ही क्षण भंगुर जीवन की सार्थकता है।’
श्रीराम आगे कहते हैं, ‘सत्य का पालन सभी सत्कर्मों में प्रमुख है। सत्य में ही समस्त धर्म, समस्त जगत प्रतिष्ठित है। इस लोक में सत्य बोलने वाला मनुष्य परमधाम को प्राप्त होता है। सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः। जगत में सत्य ही ईश्वर है। सदा सत्य के आधार पर धर्म की स्थिति रहती है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है।’

धर्म ही सहायक

आचार्य बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। समय-समय पर वह देवताओं को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। भीष्म पितामह और धर्मराज युधिष्ठिर भी बृहस्पति जी के सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे।
एक बार युधिष्ठिर ने उनसे पूछा, ‘आचार्य श्री, पिता, माता, पुत्र, गुरु, संबंधी और मित्र आदि में मनुष्य का सच्चा सहायक कौन है? सब लोग शरीर के निष्प्राण होते ही उसे ढेले के समान त्याग देते हैं। तब इस जीव का साथ कौन देता है?’ बृहस्पति बताते हैं, ‘राजन, प्राणी अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। अकेला ही दुख से पार होता है और अकेला ही दुर्गति भोगता है। माता, पिता, भाई, पुत्र, मित्र कोई भी उसके सहायक नहीं होते। प्राणहीन होते ही शरीर को मिट्टी के ढेले की तरह फेंककर दो घड़ी रोते हैं और फिर मुंह फेरकर चल देते हैं। एक मात्र धर्म और जीवन में किए गए सत्कर्म ही उस जीवात्मा का अनुसरण करते हैं। अतः मनुष्य को सदा धर्म का ही पालन करना चाहिए।’
युधिष्ठिर द्वारा यह पूछने पर कि धर्म का रहस्य क्या है, आचार्य बृहस्पति बताते हैं, ‘धर्म का सार यही है कि संपूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को देखो। जो सभी को समान भाव से देखता है, वही धर्मात्मा है। जो बातें खुदको अच्छी न लगे, वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिए। न तत् परस्य संद्ध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः। जो व्यवहार खुद को अच्छा न लगे, उसे दूसरों से भी नहीं करना चाहिए। यही धर्म का सूक्ष्म लक्षण है। मीठे वचन बोलकर और दूसरों के सुख-दुख में भागीदारबनकर भी सत्कर्म किए जा सकते हैं।’

सच्चा भिक्षु कौन

धर्मग्रंथों में साधु-संतों के लक्षण बतातेहुए कहा गया है, ‘जो सदाचारी है, जिसने वासना और लोभ पर विजय प्राप्त कर ली है, वही सच्चा साधु है।’ भगवान बुद्ध कहते हैं, ‘साधु वही है, जिसने सब पाप त्याग दिए हैं। जिसके पाप शमित हो गए हैं, वही श्रमण कहलाता है।’ स्वामी रामकृष्ण परमहंस कहते हैं, ‘जिसकी कथनी-करनी एक है, जो पूर्ण संयमी व करुणा भावना से ओतप्रोत है, परोपकार के लिए तत्पर रहता है, वही संत है।’
एक बार एक साधक तीर्थंकर महावीर के सत्संग के लिए पहुंचा। उसने विनम्रता से कहा, ‘भगवन, मैं वर्षों से साधनामय जीवन बिता रहा हूं। अब मैं भिक्षु बनने की आकांक्षा रखता हूं।’ महावीर बोले, ‘मैं तुम्हें साधु ही नहीं, परमात्मा बनने का साधन बताता हूं। जो राग, द्वेष, मोह, मद आदि विकारों को जीत लेता है औरआत्मा का चिंतन करता है, वह स्वयं ही आत्मा से परमात्मा बन जाता है।’
महावीर कहते हैं, ‘सिर मुंडा लेने से नहीं, बल्कि समता धारण करने से कोई श्रमण होता है।वन में रहने से नहीं, बल्कि ज्ञान अर्जित करने से कोई मुनि होता है। मंत्र जपने से कोई ब्राह्मण नहीं होता। कुश-चीवर धारण करने मात्र से कोई तपस्वी नहीं होता। तप करने से तापस होता है। संयम का पालन करने वाला ही सच्चा मानव है।’
महावीर कहते हैं, ‘जिसका हृदय पवित्र नहीं है, जिसने विकारों पर विजय प्राप्त नहीं की है, वह धार्मिक नहीं हो सकता। जो सांसारिक प्रपंचों में फंसा रहता है, वह साधु नहीं हो सकता। सदाचारी और सत्य-अहिंसा पर अटल रहने वाला ही सच्चा भिक्षु कहलाने का अधिकारी है।’

शुभ कर्म में डर नहीं

वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब में गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना करते हुए कहा था, ‘खालसा पंथ के अनुयायियों में ऊंच-नीच की भावना का कोई स्थान नहीं होगा। निर्धनों, अनाथों, असहायोंकी रक्षा, धर्म व न्याय की स्थापना ही हमारा प्रमुख उद्देश्य होगा।’ अपने पंज प्यारों कोसंबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘अपने जीवन को आदर्शमय बनाना। संतों के समान पवित्र ईश्वरभक्त, उदार तथा अनुरागी बनना। साथ ही महाबलियों के समान शूरवीर, बलवान और परम त्यागी बनना। मन, वचन, कर्म से खुद को महान सिद्ध करना।’
गुरु गोविंद सिंह जी न केवल अनुपम शूरवीर और योद्धा थे, बल्कि यशस्वी कवि और साहित्य सर्जक भी थे। उन्होंने दशम ग्रंथ, कृष्णावतार, चंडी चरित्र आदि काव्य ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने लिखा, देह सिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन ते कबहूं न डरौं यानी, मुझे ऐसा वर दो कि शुभ कर्म करने से मैं कभी नडरूं। अकाल स्तुति में गुरुजी लिखते हैं, ‘अकाल पुरुष एक ही हैं। वही कण-कण में व्याप्त हैं। उसकी दृष्टि में राजा और रंक में कोई भेद नहीं। चौदह लोक उसी के प्रकाश सेप्रकाशित है।’
गुरु गोविंद सिंह जी दूरदर्शी संत थे। वह जानते थे कि आगे चलकर स्वयंभू अवतारों का बोलबाला होगा। विचित्र नाटक में चेतावनी देते हुए लिखा, जे हमको परमेश्वर उतरि है। तिसभ नरकि कुंड महि परिहै। अर्थात, हम ईश्वर केअवतार नहीं हैं। जो हमें परमेश्वर कहेंगे, वे घोर नरक कुंड में पड़ेंगे। गुरु जी ऐसे इतिहास पुरुष थे, जिन्होंने धर्म रक्षार्थ अपने चारों पुत्रों का भी बलिदान दे दिया था।
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किस काम का स्वर्ग
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘उसी व्यक्ति का जीवन सफल है, जो निरंतर बिना किसी इच्छा के सत्कर्म करता है।’ धर्मग्रंथों में ऐसी अनेककथाएं मिलती हैं, जिसमें कर्मनिष्ठ भक्तों ने स्वर्ग के भोगों को ठुकराकर भगवान से पुनः पृथ्वी पर कर्म करने के लिए भेजने का अनुरोध किया।
राजा अरिष्टनेमि ऐसे परम भक्त शासक थे, जो अभावग्रस्त लोगों की सेवा किया करते थे। वृद्धावस्था से पहले ही उन्होंने राजपाट पुत्र को सौंपा और गंधमादन पर्वत पर तपस्या में लग गए। उनकी निष्काम साधना से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें अपने पास बुलाने के लिए दूत भेजा। दूत ने राजा को जाकर संदेश दिया। राजा सहज भाव से उसके साथ चल दिए।
इंद्र ने स्वयं खड़े होकर राजा का स्वागत किया। देवराज ने कहा, ‘राजन, आपने अपनी प्रजा का हर क्षण हित किया। जो राजा निष्काम भाव से पूजा-उपासना करता है और अपनी प्रजा के हित में लगा रहता है, वह असीमित पुण्यों का संचय कर लेता है। आपकी तपस्या, कर्तव्यपालन व कर्मनिष्ठा ने आपको उच्चस्तरीय स्वर्ग केभोगों का अधिकारी बना दिया है। आप इनका आनंदलें।’ राजा अरिष्टनेमी ने पूछा, ‘देवराज, मुझे कितने समय तक यह भोग भोगने का अवसर मिलेगा?’
इंद्र का जवाब था, ‘जब तक सत्कर्र्मों का प्रभाव पुण्य रहेगा।’ राजा ने कहा, ‘ऐसा स्वर्ग मेरे किसी काम का नहीं, जहां मैं केवलभोग कर सकता हूं, कर्म नहीं। अपनी जीवन भर की तपस्या से वंचित होने को मैं तैयार नहीं। मुझे वापस भेज दीजिए।’ इंद्र उनके चरणों में झुक गए।
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सर्वश्रेष्ठ भक्त
पुराणों में हनुमान जी को महावीर, निष्काम भक्त और सेवा की साकार मूर्ति बताया गया है।रावण द्वारा सीता हरण से विपदाग्रस्त हुए भगवान श्रीराम की सहायता का अनूठा आदर्श उन्होंने उपस्थित किया। सीता जी को खोजने तथा अनेक दुर्दांत राक्षसों का वध करने में सफलता मिलने पर उनसे श्रीराम ने कहा था, ‘हुनमंतलाल, मैं तुम्हारे इस उपकार से जीवन पर्यंत उऋण नहीं हो सकता। जो कुछ चाहो, मांग लो।’ हनुमान जी ने कहा, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल आपके चरणों की भक्ति की कामना करता हूं।’ यह सुन राम गदगद हो उठे और हनुमान जी कोगले लगा लिया।
एक बार महर्षि नारद भक्तराज प्रह्लाद के पास पहुंचे। उनके मुख से निकला, ‘प्रह्लाद जी, आप श्री भगवान के सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं। जैसी कृपा आप पर है, उनकी वैसी और किसी पर नहीं।’ प्रह्लाद विनयपूर्वक कहते हैं, ‘महात्मुने, मुझसे कहीं अधिक सौभाग्यशाली श्री हनुमान हैं, जिन्हें श्री राघवेंद्र कीअनन्य कृपा प्राप्त है।’
यह सुनकर देवर्षि नारद जी हनुमान जी के दर्शन के लिए श्रीराम के पास पहुंचे। उस समयश्री हनुमान राघवेंद्र की चरणसेवा में रत थे। नारद जी के मुख से निकला, ‘श्रीमन् मारुतिनंदन, सत्य ही आप श्री भगवान के सर्वाधिक परमप्रिय हैं। मैं भी आपके दर्शन कर श्री भगवान के कृपा का पात्र बन गया हूं।’
न केवल महर्षि वाल्मीकि एवं संत तुलसीदास ने अपने काव्य में श्री मारूतिनंदन का गुणगान किया है, अपितु महाकवि कालिदास, समर्थ गुरु रामदास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसों ने भी श्री हनुमंतलाल को भक्तों में श्रेष्ठ बताया है।
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