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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

सत्य-सत्कर्म ही श्रेष्ठ

भगवान श्रीराम को ‘विग्रहवान धर्म’ तथा ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहा गया है। पुराणों व अन्य धर्मग्रंथों में उनके नीतिवचनों को प्रमुख जगह दी गई है। वनवास के समय तो वह सीता और लक्ष्मण के साथ विभिन्न विषयों में शास्त्र सम्मत नीति का बखान किया करते थे।
एक दिन सीता और लक्ष्मण की जिज्ञासाओं का समाधान करते हुए श्रीराम कहते हैं, ‘जीवन अमूल्य है, पर यह क्षण भंगुर भी है। इसलिए एक-एक पल का सत्कर्मों में सदुपयोग करना चाहिए। जो व्यक्ति समय का मूल्य नहीं जानता तथा धर्म और वेद की मर्यादा का त्याग कर बैठता है, वह पाप कर्म में प्रवृत्त हो जाता है। उसके आचार और विचार, दोनों ही भ्रष्ट हो जाते हैं। निर्मयदिस्तु पुरुषः पापाचार समन्वितः।’
वह कहते हैं, ‘सभी संग्रहों का अंत क्षय है। बहुत ऊंचे चढ़ने का अंत नीचे गिरना है। संयोग का अंत वियोग है और जीवन का अंत मरण। मृत्यु साथ ही चलती है, साथ ही बैठती है और सुदूरवर्ती पथ पर भी साथ-साथ जाकर लौट आती है। हम सदैव ही उसके वश में रहते हैं। इसलिए हर क्षण सत्कर्म करने में ही क्षण भंगुर जीवन की सार्थकता है।’
श्रीराम आगे कहते हैं, ‘सत्य का पालन सभी सत्कर्मों में प्रमुख है। सत्य में ही समस्त धर्म, समस्त जगत प्रतिष्ठित है। इस लोक में सत्य बोलने वाला मनुष्य परमधाम को प्राप्त होता है। सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः। जगत में सत्य ही ईश्वर है। सदा सत्य के आधार पर धर्म की स्थिति रहती है। सत्य से बढ़कर दूसरा कोई परम पद नहीं है।’

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