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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

धर्म ही सहायक

आचार्य बृहस्पति देवताओं के गुरु थे। समय-समय पर वह देवताओं को सत्मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते थे। भीष्म पितामह और धर्मराज युधिष्ठिर भी बृहस्पति जी के सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे।
एक बार युधिष्ठिर ने उनसे पूछा, ‘आचार्य श्री, पिता, माता, पुत्र, गुरु, संबंधी और मित्र आदि में मनुष्य का सच्चा सहायक कौन है? सब लोग शरीर के निष्प्राण होते ही उसे ढेले के समान त्याग देते हैं। तब इस जीव का साथ कौन देता है?’ बृहस्पति बताते हैं, ‘राजन, प्राणी अकेला ही जन्म लेता है और अकेला ही मरता है। अकेला ही दुख से पार होता है और अकेला ही दुर्गति भोगता है। माता, पिता, भाई, पुत्र, मित्र कोई भी उसके सहायक नहीं होते। प्राणहीन होते ही शरीर को मिट्टी के ढेले की तरह फेंककर दो घड़ी रोते हैं और फिर मुंह फेरकर चल देते हैं। एक मात्र धर्म और जीवन में किए गए सत्कर्म ही उस जीवात्मा का अनुसरण करते हैं। अतः मनुष्य को सदा धर्म का ही पालन करना चाहिए।’
युधिष्ठिर द्वारा यह पूछने पर कि धर्म का रहस्य क्या है, आचार्य बृहस्पति बताते हैं, ‘धर्म का सार यही है कि संपूर्ण प्राणियों में अपनी आत्मा को देखो। जो सभी को समान भाव से देखता है, वही धर्मात्मा है। जो बातें खुदको अच्छी न लगे, वह दूसरों के प्रति भी नहीं करनी चाहिए। न तत् परस्य संद्ध्यात् प्रतिकूलं यदात्मनः। जो व्यवहार खुद को अच्छा न लगे, उसे दूसरों से भी नहीं करना चाहिए। यही धर्म का सूक्ष्म लक्षण है। मीठे वचन बोलकर और दूसरों के सुख-दुख में भागीदारबनकर भी सत्कर्म किए जा सकते हैं।’

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