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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

शुभ कर्म में डर नहीं

वर्ष 1699 में बैसाखी के दिन आनंदपुर साहिब में गुरु गोविंद सिंह जी ने ‘खालसा पंथ’ की स्थापना करते हुए कहा था, ‘खालसा पंथ के अनुयायियों में ऊंच-नीच की भावना का कोई स्थान नहीं होगा। निर्धनों, अनाथों, असहायोंकी रक्षा, धर्म व न्याय की स्थापना ही हमारा प्रमुख उद्देश्य होगा।’ अपने पंज प्यारों कोसंबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘अपने जीवन को आदर्शमय बनाना। संतों के समान पवित्र ईश्वरभक्त, उदार तथा अनुरागी बनना। साथ ही महाबलियों के समान शूरवीर, बलवान और परम त्यागी बनना। मन, वचन, कर्म से खुद को महान सिद्ध करना।’
गुरु गोविंद सिंह जी न केवल अनुपम शूरवीर और योद्धा थे, बल्कि यशस्वी कवि और साहित्य सर्जक भी थे। उन्होंने दशम ग्रंथ, कृष्णावतार, चंडी चरित्र आदि काव्य ग्रंथों की रचना की थी। उन्होंने लिखा, देह सिवा वर मोहि इहै, शुभ कर्मन ते कबहूं न डरौं यानी, मुझे ऐसा वर दो कि शुभ कर्म करने से मैं कभी नडरूं। अकाल स्तुति में गुरुजी लिखते हैं, ‘अकाल पुरुष एक ही हैं। वही कण-कण में व्याप्त हैं। उसकी दृष्टि में राजा और रंक में कोई भेद नहीं। चौदह लोक उसी के प्रकाश सेप्रकाशित है।’
गुरु गोविंद सिंह जी दूरदर्शी संत थे। वह जानते थे कि आगे चलकर स्वयंभू अवतारों का बोलबाला होगा। विचित्र नाटक में चेतावनी देते हुए लिखा, जे हमको परमेश्वर उतरि है। तिसभ नरकि कुंड महि परिहै। अर्थात, हम ईश्वर केअवतार नहीं हैं। जो हमें परमेश्वर कहेंगे, वे घोर नरक कुंड में पड़ेंगे। गुरु जी ऐसे इतिहास पुरुष थे, जिन्होंने धर्म रक्षार्थ अपने चारों पुत्रों का भी बलिदान दे दिया था।
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किस काम का स्वर्ग
भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘उसी व्यक्ति का जीवन सफल है, जो निरंतर बिना किसी इच्छा के सत्कर्म करता है।’ धर्मग्रंथों में ऐसी अनेककथाएं मिलती हैं, जिसमें कर्मनिष्ठ भक्तों ने स्वर्ग के भोगों को ठुकराकर भगवान से पुनः पृथ्वी पर कर्म करने के लिए भेजने का अनुरोध किया।
राजा अरिष्टनेमि ऐसे परम भक्त शासक थे, जो अभावग्रस्त लोगों की सेवा किया करते थे। वृद्धावस्था से पहले ही उन्होंने राजपाट पुत्र को सौंपा और गंधमादन पर्वत पर तपस्या में लग गए। उनकी निष्काम साधना से प्रसन्न होकर देवराज इंद्र ने उन्हें अपने पास बुलाने के लिए दूत भेजा। दूत ने राजा को जाकर संदेश दिया। राजा सहज भाव से उसके साथ चल दिए।
इंद्र ने स्वयं खड़े होकर राजा का स्वागत किया। देवराज ने कहा, ‘राजन, आपने अपनी प्रजा का हर क्षण हित किया। जो राजा निष्काम भाव से पूजा-उपासना करता है और अपनी प्रजा के हित में लगा रहता है, वह असीमित पुण्यों का संचय कर लेता है। आपकी तपस्या, कर्तव्यपालन व कर्मनिष्ठा ने आपको उच्चस्तरीय स्वर्ग केभोगों का अधिकारी बना दिया है। आप इनका आनंदलें।’ राजा अरिष्टनेमी ने पूछा, ‘देवराज, मुझे कितने समय तक यह भोग भोगने का अवसर मिलेगा?’
इंद्र का जवाब था, ‘जब तक सत्कर्र्मों का प्रभाव पुण्य रहेगा।’ राजा ने कहा, ‘ऐसा स्वर्ग मेरे किसी काम का नहीं, जहां मैं केवलभोग कर सकता हूं, कर्म नहीं। अपनी जीवन भर की तपस्या से वंचित होने को मैं तैयार नहीं। मुझे वापस भेज दीजिए।’ इंद्र उनके चरणों में झुक गए।
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सर्वश्रेष्ठ भक्त
पुराणों में हनुमान जी को महावीर, निष्काम भक्त और सेवा की साकार मूर्ति बताया गया है।रावण द्वारा सीता हरण से विपदाग्रस्त हुए भगवान श्रीराम की सहायता का अनूठा आदर्श उन्होंने उपस्थित किया। सीता जी को खोजने तथा अनेक दुर्दांत राक्षसों का वध करने में सफलता मिलने पर उनसे श्रीराम ने कहा था, ‘हुनमंतलाल, मैं तुम्हारे इस उपकार से जीवन पर्यंत उऋण नहीं हो सकता। जो कुछ चाहो, मांग लो।’ हनुमान जी ने कहा, ‘मुझे कुछ नहीं चाहिए, केवल आपके चरणों की भक्ति की कामना करता हूं।’ यह सुन राम गदगद हो उठे और हनुमान जी कोगले लगा लिया।
एक बार महर्षि नारद भक्तराज प्रह्लाद के पास पहुंचे। उनके मुख से निकला, ‘प्रह्लाद जी, आप श्री भगवान के सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं। जैसी कृपा आप पर है, उनकी वैसी और किसी पर नहीं।’ प्रह्लाद विनयपूर्वक कहते हैं, ‘महात्मुने, मुझसे कहीं अधिक सौभाग्यशाली श्री हनुमान हैं, जिन्हें श्री राघवेंद्र कीअनन्य कृपा प्राप्त है।’
यह सुनकर देवर्षि नारद जी हनुमान जी के दर्शन के लिए श्रीराम के पास पहुंचे। उस समयश्री हनुमान राघवेंद्र की चरणसेवा में रत थे। नारद जी के मुख से निकला, ‘श्रीमन् मारुतिनंदन, सत्य ही आप श्री भगवान के सर्वाधिक परमप्रिय हैं। मैं भी आपके दर्शन कर श्री भगवान के कृपा का पात्र बन गया हूं।’
न केवल महर्षि वाल्मीकि एवं संत तुलसीदास ने अपने काव्य में श्री मारूतिनंदन का गुणगान किया है, अपितु महाकवि कालिदास, समर्थ गुरु रामदास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसों ने भी श्री हनुमंतलाल को भक्तों में श्रेष्ठ बताया है।
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