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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

मां की सेवा का धर्म

धर्मग्रंथों में कहा गया है कि माता-पिता कीसेवा ही सर्वोपरि कर्तव्य और धर्म है। जो वृद्ध माता-पिता को असहाय छोड़कर तीर्थों की यात्रा से पुण्य अर्जित करना चाहते हैं, उसकी गति वैसी ही होती है, जैसे कोई प्यासा मृग रेतीले मैदान में बालू की लहरों को पानीसमझकर उनके पीछे दौड़ता फिरता है। अबू उस्मान हयरी खुरासान के परम तपस्वी थे। वह उपदेश में कहा करते थे, ‘अभिमान छोड़कर और विनयी बनकर ही भगवान की भक्ति की जा सकती है। हमेशा यह मानना चाहिए कि अल्लाह हमारे प्रत्येक कार्य को देख रहा है। किसी का मन दुखाने की भी कभी कोशिश मत करो। तुमसे सभी को खुशी और संतोष प्राप्त हो, ऐसी कोशिश करो।’
संत उस्मान सदाचारी और ईमानदार आदमी को खुदा का सबसे प्यारा बंदा बताया करते थे। एकदिन संत जी के पास एक युवक पहुंचा। उसने बताया, ‘बाबा, मैं मक्का की यात्रा करके आया हूं। फिर भी मेरा हृदय अशांत है।’ संत उस्मानने पूछा, ‘कहीं तू अपनी वृद्धा व रोगी माता कोअसहाय अवस्था में छोड़कर तो नहीं गया था?’ उसव्यक्ति ने कहा, ‘वास्तव में मैं अपनी मां को बिना बताए मक्का की यात्रा पर चला गया था।’ संत जी ने कहा, ‘इसी पाप कर्म के कारण तुझे मक्का की यात्रा का फल नहीं मिल रहा। तू अभी घर जा और अपनी मां की सेवा कर, तभी तेरे मन को सच्ची शांति मिलेगी।’उस युवक ने वैसा ही किया और मां के आशीर्वाद से उसका जीवन धन्य हो गया। वह आगे चलकर संत उस्मान का शिष्य बन गया।

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